इतिहास, पुरातत्व और विचारधारा
आज जब भारत की असाधारण सांस्कृतिक विविधता को गंभीर रूप से चुनौती दी जा रही है, और उसे मात्र एकांगी 'हिंदुइ्ज्म' रूपी धार्मिक जामें में समेटा जा रहा है, तो हमें डी. डी. कोसंबी की 'संपूर्ण एतिहासिक प्रक्रिया' नामक संकल्पना की याद आ रही है। भारत की अपनी ही विशिष्ट प्रक्रिया है जिसकी व्याख्या भारत के सामाजिक विकास के तर्क़ के रूप में और भारतीय सांस्कृतिक घटक के रूप में की जानी चाहिए और संस्कृति का विवेचन सभी लोगों के जीवन जीने के जरूरी तरीकों के रूप में किया जाना चाहिए। धर्म और संस्कृति जैसे पारंपरिक सूत्रीकरण के पूरी तरह से नकारते हुए यहां सामान्य जन-जीवन के अन्य अवयवों की ही तरह धर्म को भी संस्कृति का अभिन्न अंग माना गया है। यह 'संपूर्ण एतिहासिक प्रक्रिया' मात्र आर्थिक नियतत्ववाद पर नहीं टिकी है।
इस संकलन के सभी लेखों के केन्द्र में सामान्य जन हैं। निश्चित रूप से भारत जैसे विशाल भूभाग में और उसके लम्बे इतिहास के दौरान ऐतिहासिक विकासक्रम को बृहद्तर भौतिक पृष्ठभूमि में रख कर प्रस्तुत किया गया है। अतः समय-समय पर विभिन्न उत्पादन प्रणालियों की एक साथ उपस्थिति के पक्ष में तर्क दिया गया है। वस्तुतः लगभग सभी लेखों में उत्पादन विधाओं की संकल्पना और उत्पादन शक्तियों की वजह से हुए ऐतिहासिक युगान्तरों पर काफी बल दिया गया है। मुद्दा चाहे सामाजिक संरचनाओं और उनकी गतिशीलता का हो, या फिर तथाकथित 'स्त्रीवादी' लेखनों की विवेचना का; समाज के निम्नतम वर्गों की वस्तुस्थिति समझने का प्रयास हो या भारतीय कलाओं के विकासक्रम को नई दृष्टि प्रदान करने की जरूरत का; ज्ञान संचारण तंत्र के निर्माण का हो अथवा आम भारतीय की अस्मिता स्थापित करने का; प्रस्तुत लेखों में फोकस सदा ही सामान्य जन पर रहा है। यहां तक कि पुरातत्वविदों से भी यही अपेक्षा की गई है कि वे अपने उत्खनन कार्यों और उनकी रिपोर्टों में जन-जीवन को खोजने और उसे दर्ज़ करने का बीड़ा उठाएं। अंतिम दो अध्यायों में भारतीय इतिहास और पुरातत्व के दो दिग्गजों के जीवन और उनके लेखनों में झलकती कार्यप्रणाली के आधार पर भारत में बढती साम्प्रदायिकता तथा इतिहास एवं पुरातत्व के क्षेत्रों में हो रहे संप्रदायीकरण के निहितार्थों को उजागर किया गया है।
कृष्ण मोहन श्रीमाली
प्रोफ़ेसर कृष्ण मोहन श्रीमाली ने सेंट स्टीफंज़ महाविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर लगभग पैंतालीस वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। इतिहास और पुरातत्व के प्रख्यात जर्नल्स और शोध प्रबंधों में प्रकाशित अनेक शोध पत्रों के अतिरिक्त उनके कुछ प्रमुख प्रकाशन हैं : हिस्ट्री ऑफ़ पंचाल ( दो खंडों में ); दि एग्रेरियन स्ट्रक्चर ऑफ़ सेंट्रल इंडिया एंड नॉर्दन डेक्कन : अ स्टडी इन वाकाटक इन्स्क्रिप्शंज़; दि ऐज ऑफ़ आयरन ऐंड दि रेलिजस रेवोल्यूशन (सर्का 700-सर्का 350 बी. सी.); धर्म, समाज और संस्कृति; आर्थिक संरचना और धर्म - विवेक युगीन भारत में मुद्रा, नगर और ग्राम (सा. यु. पू. लगभग 700-300 ); प्राचीन भारतीय धर्मों का इतिहास, इत्यादि। उनके द्वारा संपादित कुछ महत्वपूर्ण शोध ग्रंथों में एस्सेज़ ऑन इंडियन आर्ट : रेलिजन एंड सोसाइटी; आर्कियोलॉजी सिंस इन्डिपेंडेंस; रीज़न एंड आर्कियोलॉजी; ए कौम्प्रीहेन्सिव हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया (खंड 4;प्रो रामशरण शर्मा के साथ संयुक्त रूप से) प्रोफ़ेसर श्रीमाली इतिहास, पुरातत्व और मुद्राशास्त्र से संबंधित अनेक अखिल भारतीय संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश की इतिहास परिषदों के अध्यक्ष रहे हैं। वे इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के कोषाध्यक्ष और जेनेरल सेक्रेटरी तथा इंडियन सोशल साइंस अकादमी के उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। हाल के वर्षों में वे इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस (2017) और न्यूमिस्मैटिक सोसाइटी ऑफ़ इंडिया (2014) के जनरल प्रेसीडेंट भी रह चुके हैं। भारतीय इतिहास लेखन के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसारण और भारत में सांप्रदायिक एवं फासीवादी ताकतों का विरोध करने में सदा तत्पर रहते हैं।
ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड
प्रकाशन सिर्फ व्यवसाय नहीं, देश के सांस्कृतिक और शैक्षिक विकास में भागीदारी भी है।
हिन्दी भाषा में इतिहास, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, जनमाध्यम और पत्रकारिता के पुस्तकों के प्रकाशक
विस्तृत जानकारी के लिए लिखें :
ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड
बी-7, सरस्वती कामप्लेक्स,
सुभाष चौक, लक्ष्मी नगर,
दिल्ली-110092
फोन : 011-41028967
ईमेल : granthshilpi.delhi@gmail.com